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बिहार की राजनीति में लोकप्रिय जननेता मुनीश्वर बाबू और उनसे जुड़े हुए राजनितिक किस्से


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इस वक़्त जब कई सारे राज्यों [पश्चिम बंगाल आसाम केरल तमिलनाडु पुडिचेरी ] में चुनाव चल रहे हो फिर ऐसे मौके पर मुनीश्वर बाबू से जुड़ी हुई कुछ किस्से जरुरी हो जाते है तो एक चुनावी किस्सा कहना ही ज़्यादा मौजू होगा।

Muneshwar Prasad Singh,was a Freedom Fighter,4 times Member of Legislative Assembly,Ex-Minister,Power & Irrigation Department,Government of Bihar.

साल था 1990 का, देश में मंडल कमीशन की लहर दौड़ रही थी, वीपी सिंह और उनकी नेतृत्व वाली जनता दल का खुमार सर चढ़ कर बोल रहा था। बिहार में चुनावी बिसात बिछ चुकी थी, यह दौर मंडल कमीशन के साथ ही संक्रांति काल भी था। आज़ादी और उसके आसपास के कालखंड के तमाम नेता अपने राजनीतिक अवसान की तरफ थे तो वहीं जेपी आंदोलन से जन्मे नेता राजनीतिक रूप से परिपक्व होकर अपने सीनियर्स को धकिया कर सत्ता हासिल करने को बेताब थे।

इसी कड़ी में एक सोची-समझी रणनीति के तहत कई पुरोधा समाजवादी नेताओं को बेटिकट कर दिया गया, कई मज़बूत वट वृक्षों से अपनी जड़ों को छोड़ नई ज़मीन पर स्थापित होने को कहा गया, उन सोशलिस्टों में से ही एक नाम था मुनीश्वर प्रसाद सिंह का। मुनीश्वर बाबू अंग्रेज़ी हुकूमत ने फांसी और फिर काला पानी की सज़ा सुनाई थी, देश आजाद हुआ तो नौकरी करने और फिर 1957 में पार्टी के आदेश पर सब कुछ छोड़ अपनी जन्मभूमि महनार से विधानसभा का चुनाव लड़कर हारने और फिर उसी महनार से रिकॉर्ड तोड़ मतों से जीतने वाले इंसान को भी अपना गढ़ छोड़ मुज़फ्फरपुर की गायघाट सीट से चुनाव लड़ने को कहा गया पर, ऐसा संभव कहाँ था। वो तो वही मुनीश्वर थे जिन्होंने अपने महनार के आगे लोकसभा का टिकट लौटा दिया, राज्यसभा की सांसदी लेने से इनकार कर दिया, केंद्र में मंत्री और राज्यपाल जैसे पदों को सहर्ष ठुकरा दिया। उन्होंने फिर एक बार महनार न छोड़ने का निर्णय लिया और गायघाट से उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया, पार्टी उन्हें महनार देने को राजी नहीं थी सो फैसला हुआ कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन, जनता कब मौन बैठी है, उसने अपने नेता की उपेक्षा करने वाले दल को सबक सिखाने का ठाना और जनभावनाओं के सम्मान के लिए मुनीश्वर बाबू को एक अनाम दल सोशलिस्ट पार्टी(लोहिया) के सिंबल पर प्रत्याशी बनना पड़ा।

मुनीश्वर बाबू के विरुद्ध जनता दल ने रघुवंश प्रसाद सिंह के छोटे भाई रघुपति सिंह को उम्मीदवार घोषित किया, उनके पक्ष में जनता दल ने एड़ी–चोटी का बल लगा दिया, चुनावी समर में खुद प्रधानमंत्री वीपी सिंह को उतरना पड़ा। वीपी सिंह की सभा का आयोजन महनार के बालक उच्च विद्यालय मैदान में किया गया, प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में इतना ही कहा, “मुनीश्वर भाई भी इस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं और वो हमारे लिए आदरणीय हैं, मैं चाहूंगा कि वो हमारी मदद करें।” मगर, वो शायद यह भूल गए थे कि जहां वो खड़े होकर बोल रहे थे वह मुनीश्वर बाबू का गढ़ था, जो लोग उन्हें सुन रहे थे वो मुनीश्वर बाबू के लोग थे और जिन कार्यकर्ताओं पर वीपी सिंह की सभा के आयोजन की ज़िम्मेदारी थी वो कार्यकर्ता भी मुनीश्वर बाबू के ही कार्यकर्ता थे। फिर क्या था वीपी सिंह के “मैं चाहूंगा कि…” के आगे की लाइनें किसी के कानों तक पहुंचती उससे पहले ही मंच के पास खड़े कार्यकर्ताओं ने जोरदार स्वर में नारा लगाया,

वीपी सिंह की अंतिम आवाज़, वीर मुनीश्वर ज़िंदाबाद!

रघुपति जी के पक्ष में हुई सभा कब मुनीश्वर बाबू के नाम हो गई यह जब तक वीपी सिंह और मंचासीन रामसुंदर दास, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद, रघुवंश सिंह के समझ में आता तबतक तो पूरा मैदान मुनीश्वर बाबू की जय-जयकार से गूंज उठा था।

मुनीश्वर बाबू को हराने की तमाम कोशिशें हुईं, लालू यादव लगातार महनार में कैम्प किए हुए थे। पर, जननेता को भला कौन हरा पाया है। पोलिंग हुई तो 8 ऐसे बूथ थे जिनपर वोटिंग ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए, 90 फीसदी से ज़्यादा वोट गिरे, प्रशासन पर मुनीश्वर बाबू को हराने का दवाब था सो इन आठ बूथों पर री-इलेक्शन की बात हुई।

जनता ने फिर एक बार ताकत दिखाई और अबकी बार वोटिंग का आंकड़ा पिछले आंकड़े से भी बड़ा हो गया। मतगणना हुई तो सहदेई और देसरी ब्लॉक में मुनीश्वर बाबू के खाते में महज़ 3,300 वोट थे, कार्यकर्ताओं में हताश पनपनी शुरू ही हुई थी कि वो बोल उठे, “अभी निराशा किस बात की? महनार की पेटियां खुलने तो दो।” महनार के बक्से खुले तो कई आंखें फटी की फटी रह गईं। जो इंसान तीन हज़ार के आंकड़े में उलझा हुआ था वो सबकी छाती पर चढ़कर विजय पताका लहराने लगा था। 800 मतों के अंतर से ही सही लेकिन जीत उनके खाते में थी। मगर, जिनके हाथ में सत्ता होती है वो कहाँ मानते हैं, मुनीश्वर बाबू के मामले में भी ऐसा ही हुआ, जीत तो उनकी हुई पर प्रशासन उन्हें विजय प्रमाण पत्र देने में आनाकानी कर रहा था। कभी अपना प्रमाण पत्र लेने न जाने वाले मुनीश्वर प्रसाद सिंह खुद काउंटिंग बूथ पर पहुंच खड़े हुए, उनकी धमक के आगे प्रशासन ने घुटने टेक दिए और उनका प्रमाण पत्र उन्हें सुपुर्द कर दिया गया।

जब वो जन-जन का प्रिय नेता हाजीपुर से महनार लौटा तो उस दृश्य की कल्पना मात्र रोमांचित कर देने वाली थी। लोग बताते हैं कि उस रोज़ महनार का एक-एक घर होली और दिवाली साथ-साथ मना रहा था। दलितों की एक बड़ी बस्ती में उनकी जीत के लिए निरंतर अष्टयाम यज्ञ हो रहा था, कोई पूजा कर रहा था तो कोई हवन, सबकी प्रार्थना बस यही कि उनका नेता फिर से विधानसभा में सिंहगर्जना करता सुनाई दे। वह जीत सिर्फ एक नेता की जीत नहीं थी, वह जीत थी जनता की, जनभावनाओं की और एक नेता के जन समर्पण की। नेता जिसने बता दिया की जनप्रिय होने के बाद न दल का टिकट ज़रूरी होता है, न कोई लहर आपको रोक सकती है।

Muneshwar Prasad Singh,was a Freedom Fighter,4 times Member of Legislative Assembly,Ex-Minister,Power & Irrigation Department,Government of Bihar.

वो चुनाव इसलिए भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि उस भीषण महासमर में जहां एक अकेला इंसान पूरे के पूरे तंत्र से लड़ रहा था तब चुनावी खर्च के नाम पर चंदे से जुटाए गए महज़ 50,000 रुपए खर्च हुए थे। अपने नेता, अपने आदर्श पुरुष, अपने प्रेरणास्रोत, अपने मार्गदर्शक, अपने पितामह जैसे राष्ट्रनायक के श्री चरणों में अपने कलम के माध्यम से छोटी सी श्रद्धांजलि अर्पित करने की कोशिश करता हूँ।

आभार – साथी मयंक जी [ युवा पत्रकार ]


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